रंजन कुमार सिंह
भारतीय देसी गाय का घी। भाद्रपद मास आते आते घास पक जाती है। जिसे हम घास कहते हैं, वह वास्तव में अत्यंत दुर्लभ औषधियाँ हैं। इनमें धामन जो कि गायों को अति प्रिय होता है, खेतों और मार्गों के किनारे उगा हुआ साफ सुथरा, ताकतवर चारा होता है। सेवण एक और घास है, जो गुच्छों के रूप में होता है। इसी प्रकार गंठिया भी एक ठोस खड़ है। मुरट, भूरट, बेकर, कण्टी, ग्रामणा, मखणी, कूरी, झेर्णीया, सनावड़ी, चिड़की का खेत, हाडे का खेत, लम्प, आदि वनस्पतियां इन दिनों पक कर लहलहाने लगती हैं। यदि समय पर वर्षा हुई है तो परती भूमि पर रोहिणी नक्षत्र की ताप से संतृप्त उर्वरकों से ये घास ऐसे बढ़ती है मानो कोई विस्फोट हो रहा है। इनमें विचरण करती गायें, पूंछ हिलाकर चरती रहती हैं। उनके सहारे सहारे सफेद बगुले भी इतराते हुए चलते हैं। यह बड़ा ही स्वर्गिक दृश्य होता है। इन जड़ी बूटियों पर जब दो शुक्ल पक्ष गुजर जाते हैं तो चंद्रमा का अमृत इनमें समा जाता है। आश्चर्यजनक रूप से इनकी गुणवत्ता बहुत बढ़ जाती है। कम से कम 2 कोस चलकर, घूमती हुई गायें इन्हें चरकर, शाम को आकर बैठ जाती है। रात भर जुगाली करती हैं।
अमृत रस को अपने दुग्ध में परिवर्तित करती हैं। यह दूध भी अत्यंत गुणकारी होता है। इससे बने दही को जब मथा जाता है तो पीलापन लिए नवनीत निकलता है। 5 से 7 दिनों में एकत्र मक्खन को गर्म करके यह घी बनाया जाता है। इसे ही भादवे का घी कहते हैं। इसमें अतिशय पीलापन होता है। ढक्कन खोलते ही 100 मीटर दूर तक इसकी मादक सुगन्ध हवा में तैरने लगती है। बस! मरे हुए को जिंदा करने के अतिरिक्त यह सब कुछ कर सकता है। ज्यादा है तो खा लो, कम है तो नाक में चुपड़ लो। हाथों में लगा है तो चेहरे पर मल दो। बालों में लगा लो। दूध में डालकर पी जाओ। सब्जी या चूरमे के साथ जीम लो। बुजुर्ग है तो घुटनों और तलुओं पर मालिश कर लो। गर्भवतियों के खाने का मुख्य अवयव यही था। इसमें अलग से कुछ भी नहीं मिलाना। सारी औषधियों का सर्वोत्तम सत्व तो आ गया!! इस घी से हवन, देवपूजन और श्राद्ध करने से अखिल पर्यावरण, देवता और पितर तृप्त हो जाते हैं। कभी सारे मारवाड़ में इस घी की धाक थी। कहते है कि इसका सेवन करने वाली विश्नोई महिला 5 वर्ष के उग्र सांड की पिछली टांग पकड़ लेती और वह चूं भी नहीं कर पाता था। एक और घटना में एक व्यक्ति ने एक रुपये के सिक्के को मात्र उँगुली और अंगूठे से मोड़कर दोहरा कर दिया था! आधुनिक विज्ञान तो घी को वसा के रूप में परिभाषित करता है। उसे भैंस का घी भी वैसा ही नजर आता है। वनस्पति घी, डालडा और चर्बी में भी अंतर नहीं पता उसे। लेकिन पारखी लोग तो यह तक पता कर देते थे कि यह फलां गाय का घी है! यह वही घी था जिसके कारण युवा जोड़े दिन भर कठोर परिश्रम करने के बाद भी बिलकुल नहीं थकते थे।
इसमें इतनी ताकत रहती थी, जिससे सर कटने पर भी धड़ लड़ते रहते थे! इसे घड़ों में या घोड़े के चर्म से बने विशाल मर्तबानों में इकट्ठा किया जाता था जिन्हें “दबी” कहते थे।
घी की गुणवत्ता तब और बढ़ जाती, यदि गाय पैदल चलते हुए स्वयं गौचर में चरती थी, तालाब का पानी पीती, जिसमें प्रचुर विटामिन डी होता है, और मिट्टी के बर्तनों में बिलौना किया जाता हो। वही गायें, वही भादवा और वही घास आज भी है। इस महान रहस्य को जानते हुए भी यदि यह व्यवस्था भंग हो गई तो किसे दोष दें?
जब गाय नहीं होगी,
तब घी कहां होगा!