यदि आप साहित्य प्रेमी है तो यह आपके लिए भी जानना है बहुत जरूरी

  • लोरी के रूप में मां के मुंह से उपजा बाल साहित्य
  • साहित्य अकादेमी दिल्ली का आयोजन
  • अब नजरंदाज हो रहा है बाल साहित्य

नया लुक संवाददाता

लखनऊ। साहित्य अकादेमी दिल्ली के दो दिवसीय आयोजन के दूसरे दिन हिंदी संस्थान के निराला सभागार में चले बाल साहिती के सत्रों में संगोष्ठी, काव्य समारोह के संग पुरस्कृत लेखकों ने अनुभव साझा किये। संगोष्ठी के अध्यक्षीय उद्बोधन में ओड़िया विद्वान दाश बेनहुर ने कहा कि बाल साहित्य 18वीं सदी में नहीं शुरू हुआ, लोरी के रूप में मां के मुंह से बाल साहित्य का उदय हुआ। आश्चर्य है कि बाल साहित्य नज़रअंदाज होता रहा है। विडम्बना है कि प्रथम प्रधानमंत्री साहित्य अकादेमी के पहले अध्यक्ष रहे, पर उनके समय में बाल साहित्य पुरस्कार नहीं शुरू हो पाये। बच्चों के लिए लिखते समय मां की तरह सोचना और आगे बढ़ना चाहिए।

अजय कुमार शर्मा के संचालन में चली संगोष्ठी में बांग्ला रचनाकार उल्लास मलिक ने बांग्ला बाल साहित्य के लेखन का हवाला देते हुए उसके इतिहास को सामने रखा। स्थानीय साहित्यकार जाकिर अली रजनीश ने कहा कि विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो बहुत सी बाल कहानियों ने नुकसान अधिक  पहुंचाया है। अनंत कुशवाहा की कहानी इंदरमन साहू की कहानी अधजले पांव, बांध के चूहे व प्यासा पुल, अरशद खान की कहानी पानी पानी रे व गुल्लक के संग अन्य कई उत्कृष्ट कहानियों की चर्चा करते हुए कहा हिन्दी बाल साहित्य अब भी उपदेश और नीति कथाओं के जाल में उलझा हुआ है।  मलयाली बाल साहित्य की समीक्षा करते हुए वर्ष 2012 में बाल साहित्य अवार्ड प्राप्त के.श्रीकुमार ने कहा कि मलयाली बाल साहित्य के लिये भविष्य नई चुनौतियों से भरा है।

मराठी लेखिका सविता करंजकर ने दादी-नानी के कथा कहने की विधा  को प्राचीन बाल साहित्य बताया। उन्होंने कहा कि मूल मराठी बाल साहित्य में श्यामची आई (श्याम की मां) कालातीत रचना है। फास्टर फेणे जैसे चरित्र की कहानियां मराठी में खूब पसंद की गयीं। मराठी में बहुत सी बाल पत्रिकाएं हैं जो पसंद की जाती हैं। महाराष्ट्र में किशोर पत्रिका सरकार की ओर से स्कूलों में पहुंचाई जाती है। दीवाली पर बच्चों के लिए विशेष अंक निकालने का चलन है। वहां बाल नाट्य आंदोलन भी जोर शोर से चलता है। मराठी बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है।

शब्द से ज्यादा बच्चों के मन को छूती है लय

हर रचनाकार की अपनी अलग रचना प्रक्रिया और अनुभव होते हैं, उन्हीं से उसका साहित्य उपजता है। बाल साहित्य रचने की राह आसान नहीं है और यह डिजिटल दौर में और भी मुश्किल हो गया है। उक्त निष्कर्ष बाल साहित्य पुरस्कार 2024 से पुरस्कृत लेखकों ने आज अपनी रचना प्रक्रिया से ‘लेखक सम्मिलन’ में श्रोताओं से साझा किये तो श्रोताओं के सामने आया। कार्यक्रम की अध्यक्षता अकादेमी की उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा ने की।

असमिया लेखक रंजू हाजरिका ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि बाल साहित्य पूरी दुनिया में एक सा ही है और उसका आधार वाचिक साहित्य है। बांग्ला के लिए पुरस्कृत दीपान्विता राय ने कहा कि मैंने अपने बाल साहित्य को परी कथाओं से दूर रखकर वर्तमान समय की समस्याओं से जोड़ने का प्रयास किया है। डोगरी के लिए बाल साहित्य पुरस्कार प्राप्त बिशन सिंह दर्दी ने कहा कि मेरी पुरस्कृत बाल पुस्तक कुक्कड़ू कड़ूँ का मतलब बच्चों को अपनी मातृभाषा डोगरी के प्रति जागृत करना है।

गुजराती लेखिका गिरा पिनाकिन भट्ट ने कहा कि मेरी पुरस्कृत पुस्तक  ‘हंसती हवेली’ में किशोर बच्चों की चहक, इस उम्र के तेवर,खनक, चमक  आदि को सजीव किया है। कन्नड लेखक कृष्णमूर्ति बिलगेरे ने बच्चों को स्वतंत्रता देना आवश्यक बताया। कोंकणी के लिए सम्मानित हर्षा सद्‌गुरु शेट्ये ने कहा कि मेरी पुस्तक की मुख्य पात्र बायूल मैं ही हूँ। यह मेरी ही कहानी है। मेरा बचपन गाँव हो या शहर, बहुत ही समृद्ध रूप से बीता है। पचास साल पहले के गोवा का गाँव मेरे उपन्यास में आया है। मैथिली के लिए पुरस्कृत नारायण जी ने कहा कि मेरी पुस्तक एकाकीपन भोग रहे मिथिला के ऐसे वृद्धों पर है जो अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए बच्चों से अधिक से अधिक घुल-मिलकर रहना चाहते हैं।

बाल संगोष्ठी में उपस्थित सुधी साहित्यकार

मराठी लेखक भारत सासणे ने कहा कि रहस्य, रोमांच, साहस, उत्कंठा, जिज्ञासा आदि को लेकर किशोर मन में बड़ा कुतूहल रहता है। इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने ‘समशेर कुलूपघरे’ का प्रतिनिधि चरित्र बच्चों के लिए तैयार किया। पंजाबी लेखक कुलदीप सिंह ने कहा कि मेरा पुरस्कृत नाटक ‘मैं जलियांवाला बाग बोलदा हां’  जलियांवाला बाग के बहाने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के कई गुमनाम नायकों को रंगमंच के माध्यम से बच्चों के सामने प्रस्तुत करता है।

राजस्थानी लेखक प्रहलाद सिंह झोरड़ा ने कहा कि बाल मनोविज्ञान पर आधारित बाल साहित्य और उसमें भी काव्य का सृजन अपने आपमें चुनौती है। बालमन को शब्दों के बजाय लय अधिक प्रभावित करती है। मैंने अपने इन गीतों में राजस्थान की संस्कृति, प्रकृति, रीति-रिवाज और तीज-त्योहारों के साथ ही यहाँ के कतिपय ऐतिहासिक महापुरुषों को भी नायक बनाया है। संस्कृत के लिए  पुरस्कृत हर्षदेव माधव  ने कहा कि पंचतंत्र और हितोपदेश से हटकर कथाओं का सर्जन मैंने किया है। मेरी कथाएँ अद्भुत रस, मनोरंजन, मनोरंजक बालकों के कल्पनाशील मन को आनंद देने वाली और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ जुड़ी हैं। इसके अतिरिक्त भार्जिन जेक’भा मोसाहारी (बोडो), मुजफ्फर हुसैन दिलबर (कश्मीरी), उन्नी अम्मायंबलम् (मलयालम्), क्षेत्रिमयुम सुवदनी (मणिपुरी), वसंत थापा (नेपाली), मानस रंजन सामल (ओड़िआ), दुगाई टुडु (संताली), युमा वासुकि (तमिल), पामिदिमुक्कला चंद्रशेखर (तेलुगु) ने भी अपने-अपने लेखकीय अनुभव साझा किए।

अंत में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रही साहित्य अकादेमी की उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा ने आज के सत्र को बहुत जीवंत बताते हुए कहा कि आज बच्चे टीवी मोबाइल से वह सब सीख रहे हैं जो उन्हें छोटी उम्र में ही वयस्क बना दे रहे हैं। इस डिजिटल दौर में बच्चों को किताबों से रोमांस करना सिखाना बहुत बड़ी चुनौती है। ये दायित्व आप जैसे लेखक निभा रहे हैं, ये बड़ी बात है। उन्होंने शिक्षण संस्थानों में बाल अध्ययन केंद्र खोले जाने की जरूरत बतायी।

‘बात चली है गांव गांव में, चमक चांद पर जायेगी’

इस अवसर पर निराला सभागार हिन्दी संस्थान में साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक की अध्यक्षता और अजय कुमार शर्मा के संचालन में आयोजित बाल साहिती काव्य समारोह हुआ। अध्यक्षीय वक्तव्य में माधव कौशिक ने कहा कि जब समाज में विघटन होता है तो उस खालीपन को भरने की जिम्मेदारी साहित्य निभाता है। अब हर विधा अनंत संभावनाओं के द्वार खुले हुए हैं। बच्चों के लिए रचते समय दृश्य, श्रव्य और पुस्तक माध्यम में लेखक को अलग-अलग टूल्स इस्तेमाल करने होंगे।  समारोह में लता हिरानी ने अपनी गुजराती कविता हिन्दी अनुवाद- बात चली है गांव गांव में, चमक चांद पर जायेगी। लखनऊ के सुरेंद्र विक्रम ने बाल हिन्दी रचना- पापा कहते बनो डाक्टर, मां कहती इंजीनियर…. में बच्चों पर थोपे गयी बातों के संग बाल मन की अभिलाषा और उनपर पढ़ाई के बोझ की चर्चा की। उन्होंने एक और रचना खेल खेल में भी पढ़ी।

मणिपुरी कविता पढ़ने वाले खोइसनम मंगोल ने दो लघु कविताएं पढ़ीं। उन्होंने लयात्मक तरीके से बताया कि बच्चों का व्यवहार कैसा होना चाहिए। तेलुगु रचनाकार वूरीमल्ला सुनंदा ने मूल रचना के साथ हिन्दी अनुवाद- काश मेरे पास दो पंख होते… बाल मन की उड़ानों को शब्दों में दर्शाया। उनकी दूसरी कविता- इसी को कहते क्या हल्ला- हल्ला…. प्रकृति प्रेम का चित्रण था। कानपुर के उर्दू विद्वान शोएब निजाम ने पतंग नज्म- सर-सर सर-सर पर फैलाये…… में दृश्य सा खींचने के बाद दूसरी रचना छुट्टी का मौसम में बच्चों की मस्ती का जिक्र किया। टिक टिक टिक टिक चलती जाये लाइन से शुरू कविता में समय के साथ चलने का संदेश दिया। गर्मी के मौसम को भी उन्होंने कविता में बयान किया। समापन करते हुए अकादेमी उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा ने पढ़ी गयी रचनाओं के तेवर और विषयों की बात करते हुए कहा कि आज इक्कीसवीं सदी में भी बच्चों को सहजता आकर्षित करती है।

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