कार्टूनिस्ट ऐन ने इतिहास रचा! हर पत्रकार सलाम करेगा !!

के. विक्रम राव
के. विक्रम राव

अमरीकी कार्टूनिस्ट ऐन टेल्नेस को शौर्य पारितोष से नवाजा जाना चाहिए। पुलिट्जर विजेता बड़ी हिम्मती और बहादुर पत्रकार बनकर विश्व पटल पर उभरी। हमारी प्रेरक बनी। क्या किया उसने ? मशहूर अमेरिकी दैनिक “दि वाशिंगटन पोस्ट” में 2008 से व्यंग्य चित्रकार थी (17 वर्षों से)। हाल ही के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की विजय पर उसने कार्टून बनाया। “वाशिंगटन पोस्ट” के मालिक जेफ बेजोस को ट्रंप के चरणों पर नतमस्तक होते दर्शाया। जबकि वे ट्रंप की पराजय को अटल निश्चितता कहते रहे। वाशिंगटन पोस्ट अखबार कार्टूनिस्ट ऐन टेल्नेस पुलित्जर पुरस्कार विजेता चित्रकार हैं और अपने तीखे कार्टूनों के लिए बेहद मशहूर हैं। अमेरिका में राष्‍ट्रपति पद की शपथ लेने जा रहे डोनाल्ड ट्रंप और उनके भावी कार्यकाल पर कटाक्ष करते हुए उन्‍होंने कार्टून बनाया। इसमें उन्‍होंने अमेजॉन के संस्थापक और द वाशिंगटन पोस्ट के मालिक जेफ बेजोस समेत कई अन्य दिग्गजों को कथित तौर पर नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मूर्ति के सामने घुटने टेकते हुए चित्रित करता एक कार्टून बनाया। मालिक के खिलाफ इतने बोल्‍ड कार्टून को जब वॉशिंगटन पोस्ट ने नहीं छापा तो टेल्‍नेस ने इसे “स्वतंत्र प्रेस के लिए खतरनाक” बताते हुए नौकरी छोड़ दी।

इस कार्टून में टेल्‍नेस ने जेफ बेजोस, मेटा सीईओ मार्क जुकरबर्ग और ओपनएआई के सैम ऑल्टमैन और कार्टून कैरेक्‍टर मिकी माउस को ट्रंप की मूर्ति के सामने घुटने टेकते हुए दिखाया था। ऐसा माना जा रहा है कि यहां मिकी माउस के जरिए एबीसी न्यूज की ओर इशारा किया गया था जो डिज्नी के स्वामित्व में है। हाल ही में एबीसी न्‍यूज चैनल ने ट्रंप को एक मानहानि मामले के तहत 15 मिलियन डॉलर देने का समझौता किया है। एन टेलनेस ने इस्तीफे की वजह बताते हुए वह कार्टून साझा किया है, जिसको लेकर पूरा विवाद है। इस कार्टून में वाशिंगटन पोस्ट के मालिक और अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस के साथ मेटा-फेसबुक के मार्क जकरबर्ग, ओपेन-एआई के सैम ऑल्टमैन और दूसरे तकनीक के दिग्गजों को अमेरिका के नए-नवेले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सामने घुटनों के बल बैठे हुए दिखलाया गया है। एक तरह से इन्हें ट्रंप की एक विशालकाय तस्वीर के सामने गिड़गिड़ाते हुए पेश किया गया, जहां वे झोरे भर पैसे लिए खड़े हैं।

भारत में ऐसी सेंसरशिप की शिकार कार्टूनिस्ट, फोटोग्राफर और रिपोर्टर होते रहे। बात बहुधा 1975-77 वाली इमरजेंसी की मीडिया में आज भी होती रहती है। जनता पार्टी काबीना में सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने इसे उजागर किया था। जब वे मीडिया से बोले : “आप लोगों को तो इंदिरा गांधी ने केवल झुकने को कहा था। मगर आप लोग तो रेंगने लगे।” मैं बचा रहा। तेरह महीने पांच जेलों में कैद रहा और सेंसरशिप का खुले आम विरोध भी किया। तभी का एक प्रसंग भी है।
पुलिस की हिरासत में मुझ कैदी के साथ (22 मार्च 1976) सवाल-जवाब के दौरान एक गुजराती डीआईजी साहब ने ताना मारा “प्रेस सेंसरशिप (25 जून 1975) लागू होते ही देशभर के पत्रकार पटरी पर आ गये थे। आपको अलग राग अलापने की क्यों सूझी ?” कटाक्ष चुटीला था। मीडिया कर्मियों से अमूमन ऐसा प्रश्न पूछने की ढिठाई कम ही की जाती है। तैश में पत्रकारी-स्टाईल में प्रतिकार मैं कर सकता था। मगर हथकड़ी लगी थी। प्रश्नकर्ता थे श्री पाली नादिरशाह रायटर जो बाद में गुजरात के पुलिस महानिदेशक हुये। खाकी वर्दीधारी थे, पर बौद्धिक माने जाते थे। वर्ण से पारसी थे। मुझ पर अभियोग चला था कि डायनामाइट द्वारा इन्दिरा गाँधी सरकार को हमने दहशत में लाने की साजिश रची थी। भारत सरकार पर सशस्त्र युद्ध का ऐलान किया था। सजा में फांसी मिलती।

मैंने अपने जवाब में डीआईजी से पूछा : “कौन सा दैनिक आप पढ़ते हैं ?” वे बोले, “दि टाइम्स ऑफ़ इण्डिया।” बड़ौदा में तब मैं उसी का ब्यूरो प्रमुख था। मेरा दूसरा सवाल था, “इस अठारह पृष्ठवाले अखबार को पढ़ने में 25 जून के पूर्व (जब सारे समाचार बिना सेंसर के छपते थे) कितना समय आप लगाते थे ?” उनका संक्षिप्त उत्तर था, “यही करीब बीस मिनट।” मेरा अगला और अन्तिम सवाल था, “और अब ?” रायटर साहब बोले, “बस आठ या नौ मिनट।” तब “पटरी से मेरे उतर जाने” का कारण मैंने उन्हें बताया, “आप सरीखे पाठक से छीने गये ग्यारह मिनटों को वापस दिलाने के लिये ही मैं जेल में आया हूँ।” बस पूछताछ यहीं समाप्त हो गई। मगर सी.बी.आई. तथा तीन प्रदेशों के पुलिसवाले मेरा कचूमर निकालते रहे। हवालात में हेलिकाप्टर (पंखे से टांगना) बनाते, रातदिन जागरण कराते। मेरे जीवन की रेखा लम्बी थी अतः इन्दिरा गाँधी (20 मार्च 1977) रायबरेली से चुनाव में वोटरों द्वारा पराजित कर दीं गई। भारत दूसरी बार आज़ाद हुआ। हम सलाखों के बाहर आये।

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