दो टूक : दिल्ली चुनाव : मुफ्त रेवड़ी पर होड़ तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें नोट देंगे

राजेश श्रीवास्तव

फ्रीबीज पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से जवाब मांगा था. पिछले एक साल में केंद्र यह नहीं बता पाई है कि असल में फ्रीबीज है क्या? इधर दिल्ली में मुफ्त वादों की झड़ी लग गई है। वादे करने में सभी पार्टियां आगे चल रही है। मुफ्त रेवड़ी पर सब खामोश हैं, दिल्ली में किसे मिल रहा है फ्रीबीज का असल फायदा? फ्रीबीज यानी राजनीतिक फायदे के लिए चुनाव से पहले मुफ्त की योजनाएं (रेवड़ी) मुहैया कराने की कोई कानूनी परिभाषा अभी नहीं है। शायद इसे परिभाषित करना भी जटिल है, इसलिए केंद्र सरकार एक साल से इसका जवाब ढूंढ रही है। दिल्ली की राजनीति से शुरू हुई यह कवायद किसी वायरस की तरह अन्य राज्यों में फैलने लगी है। हकीकत ये है कि देश की राजधानी की प्रति व्यक्ति आय देश में तीसरे स्थान पर है, जबकि बेरोजगारी में सबसे कम दर वाले राज्यों में दिल्ली शुमार है। फिर क्यों जनता को मुफ्त की रेवड़ी की जरूरत है? अर्थशास्त्रियों, कानूनविदों की माने तो फ्रीबीज के राजनीतिक फायदे का आकलन दलों ने भी किया। यही वजह है कि अकेले दिल्ली ही क्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान समेत कई राज्यों में चुनाव के दौरान किया गया।

दरअसल आर्थिक नजरिए से देखा जाए तो भारत में वोटर तीन स्तरों का है- उच्च वर्ग, मध्य वर्ग और निम्न वर्ग या गरीब। इनमें सब कैटेगरी भी है,लेकिन महंगाई, टैक्स, बेरोजगारी की जद्दोजहद और सुविधाओं को जुटाने की कवायद सबसे ज्यादा मध्यम वर्ग को झेलनी पड़ती है। इसमें भी तीन स्तर हैं-उच्च मध्यम वर्ग, सामान्य मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग, फ्रीबीज का सीधा फायदा इन्हें भी है। हाशिए पर रहने वालों को निशाने पर रखकर राजनीति का दौर फ्रीबीज के आने पर पुराना हो गया। इसके गलत और सही होने का फैसला या परिभाषित करने का हल सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले से निकल आएगा, लेकिन आंकड़ों की हकीकत ये सवाल उठाती है कि देश की राजधानी में रहने वाली जनता सक्षम है तो उसे फ्रीबीज की क्या जरूरत है। कई विद्बान भले बढ़ती टैक्स और महंगाई की दरों के चलते इसे जायज करार देते हों लेकिन एक धड़ा इसके बिल्कुल खिलाफ है। हालांकि मैनिफ़ेस्टो यानी चुनावी घोषणापत्र में राजनीतिक दल सरकार बनने पर सुविधाएं मुहैया कराने का ब्यौरा दे सकती है।

दरसअल फ्रीबीज की कानूनी परिभाषा तय होना जरूरी है। केंद्र से सुप्रीम कोर्ट द्बारा इस पर सवाल किए हुए एक साल से ज्यादा समय हो चुका है । देखते हैं केंद्र इस पर अदालत को क्या सुझाती है, लेकिन इस हकीकत को कोई नहीं नकार सकता कि साल 2023-24 में दिल्ली की प्रति व्यक्ति आय 4,61,910 रुपये सामने आई थी, जो देश में गोवा और सिक्किम के बाद सबसे ज्यादा है। दिल्ली की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय स्तर की प्रति व्यक्ति आय 1,84,205 रुपये से दोगुनी से अधिक है। यही नहीं, दिल्ली सरकार द्बारा प्रतिवर्ष जारी की जाने वाली हैंडबुक पर गौर किया जाए तो राष्ट्रीय राजधानी की प्रति व्यक्ति आय में 7.4 प्रतिशत वार्षिक बढ़ोतरी का अनुमान भी है। जबकि आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) द्बारा गतवर्ष सितंबर में जारी एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक बेरोजगारी दर में भी दिल्ली अन्य राज्यों से काफी निचले पायदान पर है। बेरोजगारी दर की टॉप 5 पोजिशन में जम्मू और कश्मीर, तेलंगाना, राजस्थान और ओडिशा हैं। ऐसे में राजनीतिक दलों को फ्रीबीज के बयाज समग्र विकास पर गौर करना चाहिए, लेकिन राजनीतिक तौर पर यह तभी संभव है जब मुफ्त की योजनाओं की एक परिधि तय हो और परिधि तय करना सत्ता में मौजूद किसी भी सरकार के लिए आ बैल मुझे मार वाली कहावत सिद्ध हो सकती है, क्योंकि चुनाव में जनता के सामने हर पांच साल में जाना ही है।

दिल्ली चुनाव में अब तीनों पार्टियों का एक ही एजेंडा है। टैक्स पेयर का पैसा है और तीनों पार्टियों ने एक लेवल प्लेइंग फील्ड बना दी है। तीनों की दुकानें खुली हैं और उस पर लिखा है तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें नोट देंगे। पहली बार ऐसा हुआ है कि तीनों पार्टियों ने वो दुकान खोल ली है जिसमें तीनों एक से वादे हैं। ऐसे में अब इसका टेस्ट होगा कि किसकी विश्वस्नीयता ज्यादा है। जिसकी विश्वस्नीयता ज्यादा होगी वो जीतेगा। मेरा कहना है कि यह राजनीति की गंदगी की पराकाष्ठा है। ये रेवड़ी का मौसम है और इसकी चैंपियन आम आदमी पार्टी ही रही है। पहले ये कहा जाता था कि हम गरीबों के लिए ये करेंगे या दलितों के लिए ये करेंगे। अब वो वर्ग बदलकर महिलाएं हो गया है। दक्षिण से लेकर उत्तर तक कई राज्यों में इस तरह की योजानाएं शुरू हुई हैं। लेकिन, इसकी उल्टी गिनती भी शुरू हो गई है। क्योंकि राज्यों पर आर्थिक बोझ बढ़ रहा है। इस वक्त सभी सरकारें संविधान की अवहेलना करते हुए फ्रीबीज को बढ़ावा दे रही हैं। दिल्ली में तीनों पार्टियों के बीच फ्रीबीज देने के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। इस बार कांग्रेस आम आदमी पार्टी को कड़ी चुनौती दे रही है। 2015 और 2020 में कांग्रेस ने पूरी तरह समर्पण कर दिया था। इस बार अगर कांग्रेस इसी तरह लड़ती है तो आप की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

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